There are days when I write, and then there are days when I just mindlessly write. You know. That weird feeling when you aren’t writing, but something is making you?
Last night was pretty much that.
Somewhere around 3 AM.
I remembered this very powerful image I took yesterday and couldn’t help but wonder what could have been.
It’s a wonderfully weird thing to even try.
My own:
कोई उसे रोक कैसे सकता था?
कुछ अजीब सी थी वो
काली रात में सफ़ेद बादलों को देखकर हैरान जो होती थी
रात बीते दूर किसी रेल के शोर पर गाने लिखे थे उसने
आधी-आधी सिगरेट पीकर बुझा देती थी
जैसे मानो हवा और आग को उकसा रही हो-
“लो! जलाओ मुझे भी!”
हाँ, काफ़ी अजीब थी वो
फ़्लाईओवर के ऊपर से जो एक पेड़ था
कई बार उसकी नोकीली डालियों को सजाने चली थी
शायद इसलिए क्योंकि उसे लगता था-
सूना ही सही.. सजा होना चाहिए
शायद इसलिए उस रात लाल लिपस्टिक और चांदी की झुमकी पहन
वो आधी रात को कलकत्ता की सड़कों पर निकली थी
टैक्सी वाले को कहा “मिर्ज़ा ग़ालिब”
और उस बेचारे ने चुप चाप पार्क स्ट्रीट के एक कोने पे
उसे हिफ़ाज़त से उतार दिया
उसे क्या मालूम था की पलक झपकते ही
वो किसी और रास्ते चल पड़ेगी
वो कहाँ जानता था की वो शोर ढूँढ रही थी
ऐसा शोर.. जो तन्हाइयों को चीर सकता हो
सुबह होते जो वो घर को लौटी
ब्रेड और कॉफ़ी पर वो फिर ग़ालिब और इक़बाल की बातें कर रही थी
बहुत अजीब थी वो जो होकर भी होने को तरसती थी
सब हासिल था पर तक़दीर से झगड़ती थी
एक लाल से आसमां में संडे को उसे एक सफ़ेद कबूतर क्या उड़ता दिखा
उसे लगा की शायद आग और हवा का ये खेल बंद करना होगा
आखिर स्कोर कौन रख रहा है?
चुपके से वो रात भर फिर कुछ लिखती रही
कभी उर्दू कभी हिंदी तो कभी अंग्रेज़ी
कुछ भी
उसको कैद कहाँ कर पाया था ज़माना?
कुछ पागल सी वो रहती थी
एक मूरत बनाके बस एक छवि देदी उसे
जिसे वो कभी मिटा नहीं सकती थी
हाँ, वो बुलडोज़र भी लायी थी एक दिन
डंडों के डर से उसका ड्राइवर भाग गया था
और वो गुस्से से लाल हो, बस यही कहती गयी सबसे:
“बड़ी अजीब है ये दुनिया
ये दुनिया ही बड़ी अजीब है”
The image, is indeed moving. Similarity to ‘The Lady of Shallot’ by Tennyson automatically comes to mind. The Lady was oblivious to the world around him. Only focusing on her work and singing occasionally.
About making something and writing, thoughts are anything but understandable. We don’t know what provokes them in mind and there they sit in back of the mind, wanting to be heard. They get an outlet when you give them a voice or jot them down. Wanting to be heard, and not knowing to shut up. They are more humane than humans.
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Ah. I shall read The Lady of Shallot now.
And I like what you said. Thoughts can be more humane that humans. But sometimes.
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